विदेशी मुद्रा और मुद्रा व्यापार के लाभ

विनिमय दर और विदेशी मुद्रा भंडार प्रबंधन
अमेरिकी डॉलर के बरअक्स भारतीय रुपये की विनिमय दर की बात करें तो कहा जा सकता है कि चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही वे पहले जैसी बनी रहती हैं। चंद छोटे अंतरालों को छोड़ दिया जाए तो डॉलर के मुकाबले रुपये की प्रभावी वास्तविक विनिमय दर काफी हद तक अधिमूल्यित रही है। सितंबर 1949, जून 1966 और जुलाई 1991 में रुपये का क्रमश: 30.5, 57 और 19.5 फीसदी अवमूल्यन हुआ था।
सन 1949 में भारतीय रुपये का अवमूल्यन इसलिए हुआ कि दूसरे विश्वयुद्ध के बजाय पाउंड स्टर्लिंग, अमेरिकी डॉलर के मुकाबले कमजोर हुआ था। सन 1950 के दशक से ही अक्सर घरेलू हितों को ध्यान में रखते हुए रिजर्व बैंक और भारत सरकार ने अधिमूल्यित रुपये का समर्थन किया। अभी हाल ही में अमेरिका, यूरोप, जापान और यूनाइटेड किंगडम के केंद्रीय बैंकों ने ब्याज दरों को लंबे समय तक काफी कम रखा और वास्तविक ब्याज दरें 2008 के बाद लंबे समय के लिए ऋणात्मक हो गईं।
वर्ष 2022 में कई प्रमुख केंद्रीय बैंकों द्वारा मानक दरों में तेज इजाफा किए जाने की बदौलत यह रुझान पलट गया। आरबीआई ने भी उच्च उपभोक्ता मुद्रास्फीति नियंत्रित करने के लिए ऐसा किया। इस आलेख में हम इस विषय पर बात करेंगे कि रिजर्व बैंक को किस हद तक विदेशी मुद्रा भंडार रखना चाहिए और उसके क्या निहितार्थ होंगे। एक बार जब अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरों में काफी इजाफा कर दिया गया तो यह लाजिमी था कि यूरोपियन केंद्रीय बैंक, बैंक ऑफ इंगलैंड आदि का विदेशी मुद्रा भंडार कम होता। भारत में उनके निवेश के कारण रुपये पर भी दबाव बढ़ा।
रिजर्व बैंक रुपये में किसी भी तरह के तेज इजाफे या गिरावट को कम करना चाहता है ताकि घरेलू और विदेशी निवेशकों को वास्तविक अर्थव्यवस्था और वित्तीय प्रतिभूतियों में स्थिर माहौल मुहैया कराया जा सके। इसमें अर्थव्यवस्था के किसी भी क्षेत्र को लगने वाला झटका शामिल है।
मिसाल के तौर पर कोविड-19 महामारी और बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों के केंद्रीय बैंकों और सरकारों की ओर से ब्याज दरें बढ़ाने के फैसले तथा वित्तीय क्षेत्र में लिए जाने वाले अस्वाभाविक निर्णय। इसका अर्थ यह होगा कि भारत के पास विदेशी मुद्रा का भारी भरकम भंडार होना चाहिए ताकि घरेलू अर्थव्यवस्था, वस्तु एवं सेवा व्यापार, बाहरी मुद्रा में लिए जाने वाले कर्ज और विभिन्न प्रत्यक्ष एवं पोर्टफोलियो विदेशी निवेश आदि को लेकर सही कदम उठाए जा सकें।
फिलहाल भारत का विदेशी मुद्रा भंडार करीब 530 अरब डॉलर का है जो एक वर्ष पहले के 640 अरब डॉलर से कम है। बहरहाल, यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि मुद्रा भंडार में आई 110 अरब डॉलर की कमी का 67 फीसदी इसलिए आया क्योंकि यूरो, पाउंड स्टर्लिंग और येन जैसी विदेशी मुद्राओं में रखी गयी सरकारी ऋण प्रतिभूतियों के दाम कम हुए क्योंकि ये मुद्राएं भी डॉलर के संदर्भ में तेजी से गिरीं।
जो ऋण योजनाएं रुपये में थीं उन पर नॉमिनल ब्याज दर जी 7 देशों की मुद्राओं में कम ब्याज दर की तुलना में काफी अधिक थी। ऐसी स्थिति में भारत में कुल कारक उत्पादकता अमेरिका अथवा पश्चिमी यूरोप की तुलना में उस स्थिति में अधिक होती जब कि रुपये में गिरावट नहीं आती। जैसा कि हम जानते हैं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार में सटोरिया कारोबार करने वाले विनिमय दर को लेकर सौदेबाजी कर सकते हैं क्योंकि भारतीय रुपये तथा अन्य विकसित देशों की मुद्राओं के बीच ब्याज दर में अंतर है।
अमेरिकी सरकार उन देशों को कनखियों से देख रही है जिनका चालू खाते का अधिशेष सकल घरेलू उत्पाद के दो फीसदी या उससे अधिक है। अमेरिकी सरकार इस बात के एकदम खिलाफ है कि केंद्रीय बैंक डॉलर में विदेशी मुद्रा का अतिरिक्त भंडार तैयार करके रखें। चीन द्वारा चालू खाते का भारी भरकम अधिशेष तैयार करने के बाद से ही अमेरिका ने ऐसे प्रयास शुरू किए हैं। अप्रैल 2021 में अमेरिकी वित्त विभाग की अर्द्धवार्षिक रिपोर्ट में भारत को उन देशों की सूची में शामिल किया गया जिनके बारे में आशंका थी कि वे मुद्रा के साथ जानबूझकर छेड़छाड़ कर रहे हैं।
रुपये के अधिमूल्यन को लेकर भारतीय आयातकों के साथ-साथ विदेश से पैसा भेजने वालों और संस्थागत विदेशी निवेशकों की भी रुचि रही है। रुपये में अधिमूल्यन की प्रवृत्ति इसलिए भी है क्योंकि घरेलू स्तर पर नॉमिनल ब्याज दर अधिक है और यही वजह है कि जब भी अवसर मिला डॉलर को चरणबद्ध ढंग से एकत्रित करके रुपये को गिरने दिया गया।
इस दौरान घरेलू विदेशी मुद्रा भंडार के साथ किसी तरह की छेड़खानी नहीं की गई। खासतौर पर डॉलर के मुकाबले रुपये की विनिमय दर में आने वाली चरणबद्ध गिरावट की बात करें तो 2013 के विदेशी मुद्रा और मुद्रा व्यापार के लाभ टैपर टैंट्रम (अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा अचानक बॉन्ड खरीद कम करने पर निवेशकों द्वारा दी जाने वाली प्रतिक्रिया) के बाद इसे 10 पैसे प्रति माह होना चाहिए था।
इससे संबद्ध एक बात यह है कि चूंकि डॉलर के अगले कम से कम 10 वर्ष तक दबदबे वाली आरक्षित मुद्रा बने रहने की संभावना है इसलिए डॉलर, यूरो, पाउंड स्टर्लिंग, येन और चीन की रेनमिनबी के रूप में छह मुद्राओं वाली वास्तविक प्रभावी विनिमय दर के रुपये के बरअक्स आकलन में डॉलर को तवज्जो मिलनी चाहिए।
अब तक मूडीज ने भारत को बीएए3 की रेटिंग दी है जो निवेश श्रेणी की है और विदेशी संस्थागत निवेशक भी देश की रेटिंग को तवज्जो देने के नियमों से बंधे हैं। इस संदर्भ में देखें तो 2022-23 में चालू खाते का घाटा जीडीपी के 3.5 फीसदी के बराबर रह सकता है और भारतीय खुदरा मूल्य मुद्रास्फीति सितंबर 2022 में 7.4 फीसदी थी। भारत की जीडीपी में अगर तेज वृद्धि होती है तो विदेशी निवेशकों की चिंताएं दूर हो जाएंगी लेकिन 2022-23 के वृद्धि अनुमान करीब 6.5 फीसदी के हैं और नामुरा के मुताबिक 2023-24 में यह आंकड़ा कम होकर 5.2 फीसदी तक आ सकता है।
गत 25 अक्टूबर को ब्रेंट क्रूड का एक बैरल 93 डॉलर का था और यूक्रेन संकट के साथ जुड़ी अनिश्चितता के बरकरार रहने तक यह उसी स्तर पर बना रह सकता है। भारत के अल्पावधि के ऋण की बात करें तो एक वर्ष से कम की परिपक्वता वाला ऋण मार्च 2022 तक 267.7 अरब डॉलर मूल्य का था।
सभी विदेशी मुद्राओं के वर्तमान और अनुमानित भंडार समेत तमाम बातों पर विचार करते हुए तथा वस्तु व्यापार घाटे को ध्यान में रखते हुए यह कहना समझदारी होगी कि भारत को दिसंबर 2024 तक अपना विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाकर करीब 700 अरब डॉलर के स्तर तक ले जाना चाहिए।
(लेखक भारत के पूर्व राजदूत एवं वर्तमान में सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकनॉमिक प्रोग्रेस के फेलो हैं)
US dollar का टूटेगा दबदबा! रुपये में विदेशी व्यापार को बढ़ावा देगी सरकार, कारोबारियों को मिलेंगे ये सारे फायदे
कई देश दिवालिया हो गए हैं तो कई फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व की कमी से जूझ रहे हैं। ऐसे में इन देशों के साथ भारत का व्यापार प्रभावित हो रहा है।
Edited By: Alok Kumar @alocksone
Published on: September 07, 2022 12:41 विदेशी मुद्रा और मुद्रा व्यापार के लाभ IST
Photo:FILE US dollar vs rupee
Highlights
- घरेलू मुद्रा की गिरावट रोकने में भी मदद मिलेगी
- अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अहम मुद्रा बनाने में मदद मिलेगी
- आयात के लिए डॉलर की मांग कम हो जाएगी
US dollar का दबदबा आने वाले दिनों में टूट सकता है। दरअसल, भारत सरकार विदेशी व्यापार में रुपये के इस्तेमाल को बढ़ाने के लिए आज अहम बैठक करने जा रही है। इसमें वित्त मंत्रालय, विदेश मंत्रालय, वाणिज्य मंत्रालय, भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के प्रतिनिधि समेत सभी प्रमुख बैंकों के अधिकारी शामिल होंगे। वित्तीय सेवा सचिव संजय मल्होत्रा बैठक की अध्यक्षता करेंगे। विशेषज्ञों का कहना है कि रुपये में अंतरराष्ट्रीय व्यापार लेनदेन की अनुमति देने से व्यापार सौदों के निपटान के लिए विदेशी मुद्रा की मांग घटने के साथ घरेलू मुद्रा की गिरावट रोकने में भी मदद मिलेगी। इससे रुपये को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लेनदेन के लिए अहम मुद्रा बनाने में मदद मिलेगी। इस समय भारत और रूस के बीच हो रहे व्यापार के बड़े हिस्से का लेनदेन रुपये में ही हो रहा है। आइए, जानते हैं कि रुपये में विदेशी विदेशी मुद्रा और मुद्रा व्यापार के लाभ व्यापार बढ़ने से कारोबारियों को क्या फायदे मिलेंगे।
भारत को क्या लाभ मिलेगा
विशेषज्ञों का कहना है कि कोरोना महामारी के बाद वैश्विक हालात बदले हैं। कई देश दिवालिया हो गए हैं तो कई फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व की कमी से जूझ रहे हैं। ऐसे में इन देशों के साथ भारत का व्यापार प्रभावित हो रहा है। रुपये में विदेशी व्यापार को बढ़ावा देने से इन देशों के साथ कारोबार बढ़ाने में मदद मिलेगी। भारतीय कारोबारी को बड़ा बाजार मिलेगा। इसके साथ ही द्विपक्षीय व्यापार में बैलेंस बनाने में इस प्रक्रिया से मदद मिल सकती है। रुपये में इनवॉयस और पेमेंट से ट्रांजैक्शन कॉस्ट और विदेशी मुद्रा और मुद्रा व्यापार के लाभ फॉरेन करेंसी में ट्रांजैक्शन से जुड़े मार्केट रिस्क भी कम होंगे। एक्सपोर्टर्स को रुपये की कीमत में मिले इनवॉयस के बदले एडवांस भी मिल सकेगा। वहीं, कारोबारी लेनदेन के बदले बैंक गारंटी के नियम भी FEMA (Foreign Exchange Management Act) के तहत कवर होंगे।
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रुपये पर दबाव कम होगा
आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि रुपये में विदेशी व्यापार को बढ़ावा देने से रुपये पर दबाव कम होगा क्योंकि आयात के लिए डॉलर की मांग कम हो जाएगी। रुपये की मौजूदा कमजोरी के बीच यह कदम से व्यापार सौदों के रुपये में निपटान को बढ़ावा देकर विदेशी मुद्रा की मांग घटाने में मदद मिलेगी। रिजर्व बैंक ने गत जुलाई में एक विस्तृत परिपत्र जारी करते हुए कहा था कि बैंकों को भारतीय रुपये में निर्यात एवं आयात संबंधी लेनदेन करने के लिए अतिरिक्त इंतजाम करने विदेशी मुद्रा और मुद्रा व्यापार के लाभ चाहिए। अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के द्वारा दरों में बढ़ोतरी को लेकर आक्रामक रुख से डॉलर में मजबूती देखने को मिल रही है और दुनिया भर की अन्य करंसी में कमजोरी है। इसे घरेलू आयातकों पर बोझ बढ़ गया है। इससे भारत की आर्थिक स्थिति पर भी इसका नुकसान देखने को मिल रहा है। रुपये में विदेशी व्यापार बढ़ने से देश की आर्थिक मजबूती बढ़ेगी।
भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती देगा बढ़ता विदेशी मुद्रा भंडार, जानें इसके 5 फायदे
देश का विदेशी मुद्रा भंडार 3.074 अरब डॉलर बढ़कर 608.081 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया। इसके साथ ही भारत ने रूस को पीछे छोड़ते हुए विदेशी मुद्रा रखने वाले दुनिया के देशों में चौथे स्थान पर.
देश का विदेशी मुद्रा भंडार 3.074 अरब डॉलर बढ़कर 608.081 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया। इसके साथ ही भारत ने रूस को पीछे छोड़ते हुए विदेशी मुद्रा रखने वाले दुनिया के देशों में चौथे स्थान पर पहुंच गया है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) और निजी निवेशकों द्वारा शेयर बाजार विदेशी मुद्रा और मुद्रा व्यापार के लाभ में रिकॉर्ड निवेश से विदेशी मुद्रा भंडार में उछाल आया है। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि यह सुस्त पड़ी भारतीय इकोनॉमी के लिए राहत की खबर है। आइए जानते हैं मुद्रा भंडार बढ़ने के मायने।
विदेशी मुद्रा भंडार के पांच बड़े फायदे
1. विदेशी मुद्रा भंडार का बढ़ना किसी देश की अर्थव्यवस्था में मजबूती का संकेते होता है। साल 1991 में देश को सिर्फ 40 करोड़ डॉलर जुटाने के लिए 47 टन सोना इंग्लैंड के पास गिरवी रखना पड़ा था। लेकिन मौजूदा स्तर पर, भारत के पास एक वर्ष से अधिक के आयात को कवर करने के लिए पर्याप्त मुद्रा भंडार है। यानी इससे एक साल से अधिक के आयात खर्च का बोझ उठाया जा सकता है।
2. बड़ा विदेशी मुद्रा रखने वाला देश विदेशी व्यापार को आकर्षित करता है और व्यापारिक साझेदारों का विश्वास अर्जित करता है। इससे वैश्विक निवेशक देश में और अधिक निवेश के लिए प्रोत्साहित हो सकते हैं।
3. सरकार जरूरी सैन्य सामान की तत्काल खरीदी का निर्णय भी ले सकती है क्योंकि भुगतान के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा उपलब्ध है। इसके साथ कच्चा तेल, दूसरी जरूरी सामान की आयत में बढ़ा नहीं आती है।
4. अतिरिक्त विदेशी मुद्रा बाजार में अस्थिरता को कम करने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार प्रभावी भूमिका निभा सकता है।
5. विदेशी मुद्रा बढ़ने से आम लोगों को भी फायदा मिलता है। इससे सरकारी योजनाओं में खर्च करने के लिए पैसा मिलता है।
विदेशी मुद्रा भंडार का घटक
देशी मुद्रा भंडार का सबसे बड़ा घटक विदेशी मुद्रा परिसंपत्ति, बॉन्ड, बैंक जमा, सोना और वित्तीय एसेट होते हैं। भारत के मुद्रा भंडार में विदेशी मुद्रा परिसंपत्ति 563.46 अरब डॉलर पर पहुंच गया है। इसक साथ ही स्वर्ण भंडार बढ़कर 38.10 अरब डॉलर का हो गया। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पास आरक्षित निधि 5.01 अरब डॉलर पर पहुंच गई है। इसके चलिते विदेशी मुद्रा भंडार रिकॉर्ड 608.081 अरब डॉलर पर पहुंच गया है।
इस तरह बढ़ा मुद्रा भंडार
साल 1991 में भारत का कुल विदेशी मुद्रा भंडार 1.2 अरब डॉलर था जो बीते 20 साल में बढ़कर 604.80 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है। भारत का मौजूदा विदेशी मुद्रा भंडार देश के 15 महीने के आयात बिल को संभालने का मद्दा रखता है। लगातार बढ़ता विदेशी मुद्रा भंडार देश की मजबूत होती स्थिति का इशारा कर रहा है। वित्तीय विशेषज्ञों का कहना है कि आगे भी यह रफ्तार बने रहने की उम्मीद है।
रुपये (₹) में अंतरराष्ट्रीय व्यापार के सेटलमेंट को केंद्र की अनुमति, जानें इसके फायदे
Rupees Allowed for International Trade Settlement: केंद्र सरकार ने 9 नवंबर (बुधवार) को विदेश व्यापार नीति के तहत निर्यात संवर्धन योजनाओं के लिए अंतरराष्ट्रीय व्यापार निकायों को भारतीय रुपए में लेनदेन की अनुमति दे दी है। वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ने एक बयान में कहा, ‘भारतीय रुपये के अंतर्राष्ट्रीयकरण करने की रुचि में वृद्धि को देखते हुए रुपये में अंतरराष्ट्रीय व्यापार के निपटाने को मंजूरी देने का फैसला लिया गया है।
वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के अनुसार भारतीय रुपए में अंतरराष्ट्रीय व्यापार संबंधी लेनदेन को सुगम और आसान बनाने के लिए यह निर्णय लिया गया है। इसका उद्देश्य घरेलू मुद्रा में व्यापार को सुगम बनाना और बढ़ावा देना है।
मंत्रालय ने बताया कि विदेश व्यापार महानिदेशालय (डीजीएफटी) ने निर्यातकों को विदेश व्यापार नीति के तहत प्रोत्साहन का लाभ देने के लिए मानदंडों को अधिसूचित कर दिया है। इससे आयात और निर्यात के बारे में इनवॉयस तैयार करने, भुगतान और निपटान भारतीय रुपए में किया जा सकेगा।
मंत्रालय ने कहा कि नए बदलावों को निर्यात के लिए आयात, स्टेटस होल्डर्स के रूप में मान्यता के लिए निर्यात प्रदर्शन, अग्रिम प्राधिकरण व शुल्क मुक्त आयात प्राधिकरण योजनाओं के तहत निर्यात आय की वसूली और निर्यात प्रोत्साहन पूंजीगत सामान योजना के तहत निर्यात आय की वसूली के लिए अधिसूचित किया गया है।
इस बीच, कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट, डॉलर की कमजोरी और निरंतर विदेशी फंड प्रवाह के बीच कल 9 नवंबर को अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपया 45 पैसे की तेजी के साथ 81.47 (अनंतिम) पर बंद हुआ। इंटरबैंक विदेशी मुद्रा बाजार में स्थानीय इकाई डॉलर के मुकाबले 81.43 रुपये के स्तर पर खुली और सत्र के दौरान 81.23 रुपये के इंट्रा-डे हाई और 81.62 रुपये के निम्नतम स्तर के बीच कारोबार करती दिखी।
डॉलर पर कम होगी निर्भरता
RBI डॉलर पर निर्भरता कम करने के लिए रुपये में विदेशी कारोबार को बढ़ावा देना चाहता है। पिछले महीने RBI और वित्त मंत्रालय ने बैंकों और कारोबारियों के संगठनों के प्रतिनिधियों से रूपये में आयात-निर्यात लेनदेन को बढ़ावा देने को कहा था।
RBI से मंजूरी मिलने के बाद खोले वोस्ट्रो खाते
RBI ने विदेशों में कारोबार संबंधी दिशा-निर्देशों की घोषणा इस साल जुलाई में की थी। इसके बाद रूस के दो बैंकों ने भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) से अनुमति मिलने के बाद नई दिल्ली में विशेष ‘वोस्ट्रो खाते’ खोले हैं जिससे विदेश में रुपये में कारोबार संभव हो सकेगा। रूस के सबसे बड़े बैंक स्बरबैंक और दूसरे सबसे बड़े बैंक वीटीबी बैंक किसी अन्य देश के ऐसे पहले बैंक हैं जिन्हें रुपये में कारोबार करने की मंजूरी मिली है।
इससे पहले, RBI ने सार्वजनिक क्षेत्र के यूको बैंक को रूस के गैजप्रोमबैंक के साथ विशेष ‘वोस्ट्रो’ खाता खोलने की अनुमति दी थी। इस प्रकार का खाता होने से भारत तथा रूस के बीच व्यापार के लिए भुगतान रूपये में करने की सुविधा मिलेगी। इस तरह भारतीय मुद्रा में सीमापार व्यापार करना संभव हो पाएगा।
रुपये को और ताकतवर बनान लक्ष्य
भारतीय करेंसी रुपये (Indian Currency Rupee) का अंतरराष्ट्रीयकरण यानी डॉलर की तरह आने वाले समय में पूरी तरह से कारोबार रुपये में करना मुमकिन हो जाएगा। DGFT ने इस संबंध में नोटिफिकेशन जारी करके रुपये में विदेशी कारोबार के रास्ते में आने वाले ब्रेकर्स या दिक्कतों की आशंका को खत्म कर दिया है। दरअसल, सरकार की मंशा साल 2047 तक इंडियन करेंसी को अंतरराष्ट्रीय करेंसी के तौर पर स्थापित करने की है। इसका मकसद साफतौर पर देश को आजाद हुए 100 साल होने पर भारतीय करेंसी रुपये को दूसरी करेंसियों के बराबर ताकतवर बनाना है।
मुक्त व्यापार समझौते के मोर्चे पर भारत के लिए कई अवसर
वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी के कारण सुस्त होती जा रही है। ऐसी स्थिति में विश्व व्यापार में हमारी हिस्सेदारी यदि 3-4 फीसदी भी बढ़ती है तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए उत्साहजनक होगा। इसी कारण भारत ने मुक्त व्यापार समझौते अर्थात एफटीए पर अपना रुख बदला है। विश्व में अनेक क्षेत्रीय व्यापार समझौते हुए हैं। भारत ने भी 2012 के बाद श्रीलंका, बांग्लादेश, जापान, दक्षिण कोरिया इत्यादि देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। भारत में विदेशी मुद्रा और मुद्रा व्यापार के लाभ उद्योग एवं सरकार में अवधारणा बनी कि एफटीए पर पहले के रुख से भारत को लाभ नहीं मिला, बल्कि उद्योग जगत को नुकसान हुआ। यही कारण था कि भारत, क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) से 2019 में अलग हो गया।
आरसीईपी समझौते को लेकर भारत की आशंका थी कि शुल्क मुक्त चीनी सामान से घरेलू बाजार भर जाएगा। हालांकि आरसीईपी से अलग होने के बावजूद चीन के साथ हमारा व्यापार घाटा बीते तीन सालों से बढ़ता ही जा रहा है। यही कारण है कि भारत ने एफटीए को लेकर एक अंतराल के बाद अपना रुख बदला है। संयुक्त अरब अमीरात और ऑस्ट्रेलिया के साथ एफटीए हो चुका है। इस क्रम में ब्रिटेन, कनाडा और यूरोपीय यूनियन से वार्ता विभिन्न चरणों में जारी है। वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल के अनुसार ब्रिटेन के साथ एफटीए वार्ता जल्द पूरी होने वाली है।
भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय कमजोर होती मुद्रा, घटते विदेशी मुद्रा भंडार, तीव्र गति से विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों की निकासी, व्यापार घाटे में वृद्धि इत्यादि की समस्याओं से जूझ रही है। ऐसे में निर्यात वृद्धि आवश्यक है। इसके लिए भारत का ग्लोबल वैल्यू चेन यानी जीवीसी से जुडऩा जरूरी है। जीवीसी से संबद्ध होने में एफटीए की विशिष्ट भूमिका है। हमारे व्यापार में एफटीए की हिस्सेदारी वर्ष 2000 में 16 प्रतिशत थी जो अब 18.5 प्रतिशत है। स्पष्ट है कि भारत एफटीए से आशा के अनुरूप लाभ नहीं उठा सका है। हमारे व्यापार में ज्यादा हिस्सेदारी गैर-एफटीए की है, जिसमें अमरीका, चीन और ईयू प्रमुख हैं। हमारे आयात-निर्यात की दृष्टि से अमरीका का महत्त्व बरकरार है, जबकि ईयू का महत्त्व पहले से कम हुआ है। हमें वर्तमान में उपयोगी देशों और क्षेत्रों से संबंधित एफटीए की जरूरत है। हमें वर्तमान में उच्च निर्यात बाजार अमरीका, ईयू और बांग्लादेश पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इसके अतिरिक्त भविष्य के प्रमुख बाजारों अफ्रीका और लैटिन अमरीकी देशों पर भी ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है।
भारत ने 2019 में आरसीईपी से दूरी बनाई, पर अब एशिया पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क (आइपीईएफ) में शामिल होने का मौका है, जो हाल ही में बना है। इस समूह में 14 देश शामिल हैं और वैश्विक जीडीपी में उनकी हिस्सेदारी 28 फीसदी है।
ट्रांस पैसिफिक भागीदारी का नेतृत्व कभी अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा करते थे, परंतु ट्रंप ने इससे दूरी बना ली थी। इस समझौते से अलग रहने का खमियाजा अमरीका भुगत रहा है। उसके व्यापार अवसर छूट रहे हैं और उसका भू-राजनीतिक प्रभाव भी घट रहा है। यही कारण है कि अमरीका ने आइपीईएफ की स्थापना में अति सक्रियता दिखाई। भारत को भी त्वरित तौर पर इसमें शामिल होकर व्यवस्थित और सुसंगठित रूप से अपने व्यापार के एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहिए। आइपीईएफ में अमरीका, इंडोनेशिया, जापान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर और वियतनाम हैं, जो भारत के लिए भी खास हैं। गौरतलब है कि चीन, आइपीईएफ में शामिल नहीं है।
यह कोई संयोग नहीं है कि हमारा बीते दो दशकों में चीन, दक्षिण कोरिया और वियतनाम से कारोबार बढ़ा है। ये विश्व के सबसे ज्यादा प्रतिस्पर्धी देश हैं और प्राय: सभी देशों का व्यापार संतुलन का झुकाव इन तीन देशों की तरफ हो गया है। भारत गैर शुल्कीय बाधाओं और अधिक लागत की शिकायत कर सकता है, पर अंतत: प्रतिस्पर्धा को बढ़ाकर ही व्यापार संतुलन को सुनिश्चित किया जा सकता है। इसके लिए एफटीए सबसे बेहतर विकल्प है।
कई वैश्विक निवेशक ‘चाइना प्लस वन’ की रणनीति अपना रहे हैं। जाहिर है इससे भारत को भी लाभ होगा, क्योंकि ये निवेशक चीन से बाहर वियतनाम, थाईलैंड, भारत जैसे देशों में फैक्ट्री लगाना चाहते हैं। चीन-अमरीका ‘ट्रेड वार’ के समय भी भारत के लिए स्वर्णिम अवसर उपलब्ध थे, पर उनका समुचित लाभ नहीं उठाया जा सका था। वैश्विक भागीदारी से मूल्य संवर्धन के साथ रोजगार के अवसर भी बनेंगे। ‘चाइना प्लस वन’ से उत्पन्न हुए अवसर हमेशा नहीं रहेंगे। इसलिए भारत के लिए आवश्यक है कि वह अंतरराष्ट्रीय व्यापार में खुलेपन के सिद्धांतों तथा प्रतिस्पर्धी बनने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाए। भारत का विकास मुख्य रूप से उत्पादन और सेवा के क्षेत्र में वैश्विक प्रतिस्पर्धा पर निर्भर है।